प्रिया..अब मुझसे नहीं होगा.... 52 साल के बैंक ऑफ बड़ौदा के मैनेजर ने लगाई फासी.....सुसाइड नोट में किया अपना दर्द बयान

 

दीवारों के पीछे का दर्द: जब एक बैंक मैनेजर ने ख़ामोशी से दुनिया को कह दिया अलविदा.... 


ऑफिस की घड़ी की सुइयां शायद रोज़ की तरह ही आगे बढ़ रही थीं, लेकिन उस रात बारामती की एक बैंक शाखा में वक़्त जैसे थम गया था। बाहर दुनिया सो रही थी, और अंदर, एक 52 वर्षीय मैनेजर अपनी ज़िंदगी के सबसे भारी बोझ तले अकेला खड़ा था। यह कहानी है उस दबाव की, जो अक्सर बंद दरवाज़ों और चमचमाती कैबिनों के पीछे पनपता है और एक हँसते-खेलते इंसान को खामोशी से निगल जाता है।

शिवशंकर मित्रा, जो बैंक के मुख्य प्रबंधक थे, अपने काम के प्रति हमेशा समर्पित रहे। लेकिन यह समर्पण धीरे-धीरे एक ऐसा बोझ बन गया था, जिसे उठाना उनके लिए नामुमकिन हो गया था। उन्होंने इस घुटन से बाहर निकलने का एक रास्ता भी चुना था - कुछ ही दिन पहले उन्होंने स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति (VRS) के लिए आवेदन किया था, यह उम्मीद करते हुए कि शायद उन्हें इस तनाव भरी दुनिया से राहत मिल जाएगी। पर उनकी अर्ज़ी फाइलों में ही दबी रह गई।

उस शाम, जब काम के घंटे ख़त्म होने के बाद भी शिवशंकर मित्रा घर नहीं लौटे, तो उनकी पत्नी का दिल बेचैन हो उठा। अनगिनत फोन कॉल्स का जब कोई जवाब नहीं आया, तो वह घबराकर बैंक की ओर दौड़ीं। बैंक की बत्तियां जल रही थीं, लेकिन अंदर एक अजीब सी ख़ामोशी थी। जब दरवाज़ा खोला गया, तो सामने का मंज़र किसी के भी पैरों तले ज़मीन खिसका देने के लिए काफी था। शिवशंकर मित्रा, जो कल तक दूसरों के भविष्य को सुरक्षित करने का काम करते थे, आज अपना ही वर्तमान हार चुके थे।




उनके पास से एक पत्र मिला, जो सिर्फ़ एक सुसाइड नोट नहीं, बल्कि एक थके हुए योद्धा का आखिरी संदेश था। उस पत्र में उन्होंने अपनी पत्नी से माफ़ी मांगते हुए लिखा था कि वह और हिम्मत नहीं जुटा पा रहे हैं। उन्होंने किसी पर कोई आरोप नहीं लगाया, बस एक गुज़ारिश की - "बैंक को अपने कर्मचारियों पर इतना दबाव नहीं डालना चाहिए। हर कोई अपना काम पूरी ईमानदारी से करता है।"

यह पत्र उनके अंदर चल रही उस लड़ाई का सबूत था, जिसे वह अकेले लड़ रहे थे। उन्होंने साफ़ लिखा कि उनके इस कदम के लिए परिवार का कोई भी सदस्य ज़िम्मेदार नहीं है।

यह घटना सिर्फ एक दुखद अंत नहीं है, बल्कि कॉर्पोरेट जगत के उस स्याह पहलू पर एक सीधी टिप्पणी है, जहाँ टारगेट और डेडलाइन के बीच इंसान कहीं पीछे छूट जाता है। शिवशंकर मित्रा की कहानी एक सवाल छोड़ जाती है: क्या हमारी सफलता की कीमत किसी की ज़िंदगी से ज़्यादा है? यह एक ऐसी ख़ामोश चीख है जिसे समाज और सिस्टम को सुनने की ज़रूरत है, ताकि भविष्य में कोई और शिवशंकर मित्रा इस तरह गुमनामी के अंधेरे में न खो जाए।


अगर आप या आपका कोई जानने वाला किसी भी तरह के तनाव, अवसाद या मानसिक परेशानी से गुजर रहा है, तो कृपया मदद मांगने में संकोच न करें।

AASRA हेल्पलाइन: 9820466726 (24x7 उपलब्ध)

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